"आह मेरा"
आह मेरा
आह मेरा, दर्द से भरा हुआ है,
मानो पुराने घाव जीवन के बिस्तर पर फिर से ताज़ा हो गए हैं।
मेरी आत्मा, कठिनाइयों की भट्टी में जल रही है,
और उसकी हर लपट, सब्र और खामोशी की कहानी बयां करती है।
वक़्त मरहम नहीं बन पाता,
और पल खंजर की तरह
मेरे ज़ख्मों की गहराई में उतर जाते हैं।
लेकिन मैं, अपनी राख के बीच,
आशा का एक बीज खोजता हूं,
शायद कल
एक नई शुरुआत हो।
लेखक: अफ़ग़ान कवि
अहमद महमूद अम्परातोर
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